बंदऊँ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।
मैं श्रीरघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वन्दता करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूपसे बीज है । यह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवस्वरूप है । वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भण्डार है ।।1।।
महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ।।
महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ।।
जो महामन्त्र है, जिसे महेश्वर श्रीशिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है, तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं ।।2।।
जान आदिकबि नाम प्रतापू । भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ।।
सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेईं पिय संग भवानी ।।
आदिकवि श्रीवाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उलटा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गये । श्रीशिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्रीशिवजी) के साथ रामनाम का जप करती रहती हैं ।।3।।
हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिन भूषन ती को ।।
नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ।।
नाम के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्रीशिवजी हर्षित हो गये और उन्होंने स्त्रियों में भूषणरूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया (अर्थात् उन्हें अपने अङ्ग में धारण करके अर्धाङ्गिनी बना लिया) । नाम के प्रभाव को श्रीशिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहरने उनको अमृत का फल दिया ।।4।।
दो0 – बरषा रितु रघपति भगति तुलसी सालि सुदास ।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ।।19।।
श्रीरघुनाथजी की भक्ति वर्षा-ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और ‘राम’ नामके दो सुन्दर अक्षर सावन-भादों के महीने हैं ।।19।।
आखर मधुर मनोहर दोऊ । बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ।।
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ।।
दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमालारूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिये सुलभ और सुख देनेवाले हैं, और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं (अर्थात् भगवान् के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं) ।।1।।
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके । राम लखन सम प्रिय तुलसी के ।।
बरनत बरन प्रीति बिलगाती । ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ।।
ये कहने, सुनने और स्मरण करने में बहुत ही अच्छे (सुन्दर और मधुर) हैं, तुलसीदास को तो श्रीराम-लक्ष्मण के समान प्यारे हैं । इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वर्णन करने में प्रीति बिलगाती है (अर्थात् बीजमन्त्र की दृष्टि से इनके उच्चारण, अर्थ और फल में भिन्नता दीख पड़ती है) परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्म के समान स्वभाव से ही साथ रहनेवाले (सदा एकरूप और एकरस) ।।2।।
नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ।।
भगति सुतिय कल करन बिभूषन । जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।।
ये दोनों अक्षर नर-नारायण के समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत् का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करनेवाला हैं । ये भक्तिरूपिणी सुन्दर स्त्री के कानों के सुन्दर आभूषण (कर्णफूल) हैं और जगत् के हित के लिये निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं ।।3।।
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के । कमठ सेष सम धर बसुधा के ।।
जन मन मंजु कंज मधुकर से । जीह जसोमति हरि हलधर से ।।
ये सुन्दर गति (मोक्ष) रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करनेवाले हैं, भक्तों के मनरूपी सुन्दर कमल में विहार करनेवाले भौरे के समान हैं और जीभरूपी यशोदाजी के लिये श्रीकृष्ण और बलरामजी के समान (आनन्द देनेवाले) हैं ।।4।।
दो0 – एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ।।20।।
तुलसीदासजी कहते हैं – श्रीरघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर हैं ।।20।।
समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।
समझने में नाम और नामी दोनों एक-से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं । प्रभु श्रीरामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते हैं, नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं) । नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि है, ये (भगवान् के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुन्दर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है ।।1।।
को बड़ छोट कहत अपराधू । सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू ।।
देखिअहिं रूप नाम आधीना । रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ।।
इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है । इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे । रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नामके बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता ।।2।।
रूप बिसेष नाम बिनु जानें । करतल गत न परहिं पहिचानें ।।
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें । आवत हृदयँ सनेह बिसेषें ।।
कोई-सा विशेष रूप बिना नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना देखे भी नामका स्मरण किया जाय तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है ।।3।।
नाम रूप गति अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी ।।
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ।।
नाम और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है । वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान करानेवाला चतुर दुभाषिया है ।।4।।
दो0 – राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ।।21।।
तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख ।।21।।
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी । बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ।।
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा । अकथ अनामय नाम न रूपा ।।
ब्रह्मा के बनाये हुए इस प्रपञ्च (दृश्य जगत्) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्त्वज्ञानरूपी दिन में) जगते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं ।।1।।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ । नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ।।
साधक नाम जपहिं लय जाएँ । होहिं सिद्ध अनिमादिक पैएँ ।।
जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नामको जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं । (लौकिक सिद्धियों के चाहनेवाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं ।।2।।
जपहिं नामु जन आरती भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।।
राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृती चारिउ अनघ उदारा ।।
(संकट से घबराये हुए) आर्त भक्त नामजप करते हैं तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मीट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं । जगत् में चार प्रकार के (1-अर्थार्थी-धनादि की चाह से भजनेवाले, 2-आर्त – संकट की निवृत्ति के लिये भजनेवाले, 3-जिज्ञासु – भगवान् को जानने की इच्छा से भजनेवाले, 4-ज्ञानी – भगवान् को तत्त्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजनेवाले) रामभक्ति हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं ।।3।।
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा । ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ।।
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ।।
चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय है । यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है । इसमें तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है ।।4।।
दो0 – सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन ।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन ।।22।।
जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित श्रीरामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुन्दर प्रेमरूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है (अर्थात् वे नामरूपी सुधा का निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते) ।।22।।
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा । अकथ अगाध अनादि अनूपा ।।
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें । किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें ।।
निर्गुण और सगुण - ब्रह्म के दो स्वरूप हैं । ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं । मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है ।।1।।
प्रौढ़ि सुजन जनि जनानहिं जन की । कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ।।
एकु दारुगत देखिअ एकू । पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ।।
उभय अगम जुग सुगम नाम तें । कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ।।
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी । सत चेतन घन आनँद रासी ।।
सज्जनगण इस बात को मुझ दास की ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें । मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ । (निर्गुण और सगुण) दोनों प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है । निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है जो काठ के अंदर है, परन्तु दीखती नहीं, और सगुण उस प्रगट अग्नि के समान है जो प्रत्यक्ष दीखती है । (तत्त्वतः दोनों एक ही हैं, केवल प्रकट-अप्रकट के भेद से भिन्न मालूम होती हैं । इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं । इतना होने पर भी) दोनों ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नाम से दोनों सुगम हो जाते हैं । इसी से मैंन नाम को (निर्गुण) ब्रह्म से और (सगुण) राम से बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है, सत्ता, चैतन्य और आनन्द की घनराशि है ।।2-3।।
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी । सकल जीव जग दीन दुखारी ।।
नाम निरूपन नाम जतन तें । सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ।।
ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत् के सब जीव दीन और दुखी हैं । नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक नामजपरूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रगट हो जाता है जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य ।।4।।
दो0 – निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार ।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ।।23।।
इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यन्त बड़ा है । अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ कि नाम (सगुण) राम से भी बड़ा है ।।23।।
राम भगत हित नर तनु धारी । सहि संकट किए साधु सुखारी ।।
नामु सप्रेम जपत अनयासा । भगत होहिं मुद मंगल बासा ।।
श्रीरामचन्द्रीजने भक्तों के हित के लिये मनुष्य-शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया, परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप तरके हुए सहजही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं ।।1।।
राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।।
रिषि हित राम सुकेतुसुता की । सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी ।।
सहित दोष दुख दास दुरासा । दलइ नाम जिमि रबि निसि नासा ।।
भंजेउ राम आप भव चापू । भव भय भंजन नाम प्रतापू ।।
श्रीरामजी ने एक तपस्वी की स्त्री (अहल्या) को ही तारा, परन्तु नामने करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार दिया । श्रीरामजीने ऋषि विश्वामित्र के हित के लिये एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताड़का की सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित समाप्ति की, परन्तु नाम अपने भक्तों के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रि का । श्रीरामजी ने तो स्वयं शिवजी के धनुष को तोड़ा, परन्तु नाम का प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करनेवाला है ।।2-3।।
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किए पावन ।।
निसिचर निकर दले रघुनंदन । नामु सकल कलि कलुष निकंदन ।।
प्रभु श्रीमराजी ने (भयानक) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया । श्रीरघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है ।।4।।
दो0 – सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ।।24।।
श्रीरघुनाथजीने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया । नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है ।।24।।
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ ।। राखे सरन जान सबु कोऊ ।।
नाम गरीब अनेक नेवाजे । लोक बेद बर बिरिद बिराजे ।।
श्रीरामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोको ही अपने शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परंतु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है । नाम का यह सुन्दर विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है ।।1।।
राम भालु कपि कटकु बटोरा । सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ।।
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजन मन माहीं ।।
श्रीरामजी ने तो भालू और बन्दरों की सेना बटोरी और समुद्र पुल बाँधने के लिये थोड़ा परिश्रम नहीं किया, परंतु नाम लेते ही संसार-समुद्र सूख जाता है । सज्जनगण ! मन में विचार कीजिये (कि दोनों में कौन बड़ा है) ।।2।।
राम सकुल रन रावनु मारा । सीय सहित निज पुर पगु धारा ।।
राजा रामु अवध रजधानी । गावत गुन सुर मुनि बर बानी ।।
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती । बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती ।।
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें । नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें ।।
श्रीरामचन्द्रजी ने कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीतासहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया । रा राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुन्दर वाणी से जिनके गुण गाते हैं । परंतु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नाम के स्मरण मात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रमाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती ।।3-4।।
दो0 – ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि ।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ।।25।।
इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है । यह वरदान देनेवालों को भी वर देनेवाला है । श्रीशिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ रामचरित्र में से इस ‘राम’ नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है ।।25।।
मासपारायण, पहला विश्राम
नाम प्रसाद संभु अबिनासी । साजु अमंगल मंगल रासी ।।
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ।।
नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमङ्गल वेषवाले होने पर भी मङ्गल की राशि हैं । शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगीगण नाम के ही प्रमाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं ।।1।।
नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ।।
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ।।
नारदजी ने नाम के प्रताप को जाना है । हरि सारे संसार को प्यारे हैं, (हरि को हर प्यारे हैं) और आप (श्रीनारदजी) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं । नाम के जपने से प्रभुने कृपा की, जिससे प्रह्लाद भक्तशिरोमणि हो गये ।।2।।
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ।।
सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ।।
ध्रुवजी ने ग्लानि से (विमाता के वचनों से दुखी होकर सकाम भाव से) हरिनाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया । हनुमानजी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्रीरामजी को अपने वश में कर रखा है ।।3।।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ।।
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । राम न सकहिं नाम गुन गाई ।।
नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्रीहरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गये । मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते ।।4।।
दो0 – नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ।।26।।
कलियुग में राम नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भाँग-सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया ।।26।।
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ।।
बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ।।
(केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों कालों में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं । वेद, पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्रीरामजी में (या रामनाम में) प्रेम होना है ।।1।।
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ।।
कलि केवल मल मूल मलीना । पाप पयोनिधि जन मन मीना ।।
पहले (सत्य) युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान् प्रसन्न होते हैं, परंतु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पापरूपी समुद्र में मछली बना हुआ है (अर्थात् पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता, इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते) ।।2।।
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला ।।
राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितु माता ।।
ऐसे कराल (कलियुग के) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देनेवाला है । कलियुग में यह रामनाम मनोवाञ्छित फल देनेवाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है (अर्थात् परलोक में भगवान् का परमधाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है) ।।3।।
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ।।
कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ हनुमानू ।।
कलियुग में कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, रामनाम ही एक आधार है । कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिये रामनाम ही बुद्धिमान् और समर्थ श्रीहनुमानजी हैं ।।4।।
दो0 – राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ।।27।।
रामनाम श्रीनृसिंह भगवान् है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह रामनाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करनेवालों की रक्षा करेगा ।।27।।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ।।
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (वैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है । उसी (परम कल्याणकारी) रामनाम का स्मरण करके और श्रीरघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ ।।1।।