आंडाल, जिन्हें कोधाई या गोदा देवी के नाम से भी जाना जाता है, 9वीं सदी की तमिल कवयित्री और भगवान विष्णु की भक्त थीं। वह वैष्णव परंपरा के 12 आलवारों में से एक थीं और उनमें से एकमात्र महिला थीं। भगवान विष्णु के प्रति उनकी भक्ति उनके काव्य रचनाओं, विशेष रूप से "तिरुप्पावै" और "नचियार तिरुमोझी" के माध्यम से प्रकट होती है, जिन्हें तमिल महीने मार्गज़ी के दौरान मंदिरों में गाया जाता है।
आंडाल का जन्म तमिलनाडु के श्रीविल्लिपुथुर में पेरियालवार के घर हुआ था, जो एक अन्य सम्मानित आलवार संत थे। किंवदंती के अनुसार, उन्हें एक शिशु के रूप में मंदिर के बगीचे में तुलसी के पौधे के नीचे पाया गया, और पेरियालवार ने उन्हें अपनी बेटी के रूप में गोद लिया। कम उम्र से ही आंडाल भगवान विष्णु के प्रति प्रेम और भक्ति में गहरी डूबी रहती थीं और उनके महान कार्यों की कहानियाँ सुनती रहती थीं।
वह हर दिन मंदिर में भगवान के लिए माला बनाती थीं। हालाँकि, भगवान को अर्पित करने से पहले, आंडाल स्वयं माला पहनती थीं और खुद को विष्णु की दुल्हन के रूप में देखती थीं। एक दिन, उनके पिता ने यह देखा और दुखी होकर माला को फेंक दिया, यह सोचकर कि यह भगवान के लिए अयोग्य है। लेकिन उसी रात, भगवान विष्णु ने पेरियालवार के सपने में आकर कहा कि उन्हें आंडाल द्वारा पहनी गई माला अधिक प्रिय है। पेरियालवार को यह समझ में आ गया कि आंडाल कोई साधारण लड़की नहीं, बल्कि एक दिव्य अवतार हैं।
जैसे-जैसे आंडाल बड़ी हुईं, भगवान विष्णु के प्रति उनका प्रेम और भी गहरा हो गया, और उन्होंने भगवान से विवाह करने की इच्छा जताई। उनकी कविताएँ भगवान के प्रति भक्ति और उनके साथ मिलन की तीव्र अभिलाषा से भरी हुई हैं। अंततः, ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने उन्हें अपनी दुल्हन के रूप में स्वीकार किया और श्रीरंगम के प्रसिद्ध रंगनाथस्वामी मंदिर में वे भगवान के साथ मिल गईं।
आंडाल की तिरुप्पावै, 30 भजनों का एक समूह है, जिसे तमिल भक्ति साहित्य का एक उत्कृष्ट कृति माना जाता है। उनके रचनाएँ भगवान विष्णु के प्रति प्रेम, समर्पण और आत्मसमर्पण की भावना से भरी हुई हैं और आज भी दक्षिण भारत और अन्य क्षेत्रों में भक्तों को प्रेरित करती हैं।