कनकदास 16वीं सदी के संत, कवि और दार्शनिक थे, जिनका जन्म कर्नाटक में हुआ था। वे भगवान कृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। कनकदास का असली नाम थिम्मप्पा नायक था और उनका जन्म एक योद्धा समुदाय (कुरुबा) में हुआ था। बाद में वे भक्ति आंदोलन के अनुयायी बन गए, जो जाति और सामाजिक स्थिति से ऊपर भगवान के प्रति भक्ति पर जोर देता था।
कनकदास की भक्ति अद्वितीय थी क्योंकि वे जीवन के हर पहलू में भगवान को देखते थे। उनकी कविताएँ और गीत, जिन्हें "कीर्तन" कहा जाता है, उनकी इस धारणा को व्यक्त करते हैं कि भगवान हर जगह और हर व्यक्ति में विद्यमान हैं, चाहे वह जाति, धन, या स्थिति कुछ भी हो। उनकी रचनाएँ सरल और गहरे अर्थ वाली होती थीं, जो साधारण भाषा में आध्यात्मिक संदेश देती थीं।
कनकदास से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा है जब वे उडुपी मंदिर में भगवान कृष्ण के दर्शन करने गए। चूंकि वे निचली जाति से थे, इसलिए उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई। लेकिन कनकदास हतोत्साहित नहीं हुए और मंदिर के बाहर खड़े होकर भगवान कृष्ण की स्तुति में भजन गाने लगे। उनकी भक्ति देखकर एक चमत्कार हुआ, और मंदिर में स्थापित कृष्ण की मूर्ति ने अपना मुख कनकदास की ओर घुमा लिया। यह घटना दीवार में एक छोटी दरार के रूप में जानी जाती है, जिसे "कनकना किंडी" कहा जाता है। आज भी यह दरार उडुपी मंदिर में मौजूद है और यह संदेश देती है कि भगवान अपने भक्तों के प्रति किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते हैं।
कनकदास का जीवन और उनकी रचनाएँ आज भी कर्नाटक और अन्य स्थानों पर लोगों को प्रेरित करती हैं। उनका यह विश्वास कि भगवान हर जगह हैं, भक्ति, समानता और भगवान के प्रति प्रेम का एक महत्वपूर्ण संदेश देता है।